कैलाश सत्यार्थीके आत्मकथा दियासलाई का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
सन् 1969 की बात है। उस साल गांधी जी के जन्म के सौ साल पूरे हुए थे। देश भर में गांधी जन्म शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था। महात्मा गांधी को याद करके तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे थे। शहर के नेतागण छुआछूत के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े भाषण देते थे जिन्हें सुनकर मुझे बड़ी प्रेरणा मिली।
इसका एक कारण और भी था। कुछ लोग हमारे घरों के खुले पाखानों से मैला निकालकर टोकरियों में भरकर सिर पर ढोते थे। उन्हें मेहतर और मेहतरानियाँ कहा जाता था। वे जाति व्यवस्था में सबसे नीचे और अछूत माने जाते थे। उन मेहतरानियों की टोकरियों का मैला रिसकर उनके गालों और शरीर पर बहता रहता था। वे कभी किसी के घर के भीतर नहीं घुस सकती थीं। वे शाम को नहा-धोकर एक साफ़ टोकरी लेकर मोहल्ले में हर घर के सामने जाकर आवाज़ लगाती थीं। लोग छतों, बालकनियों या दरवाज़ों पर जाकर रोटियाँ, या सिक्के फेंककर उनकी टोकरियों में डाल दिया करते थे। यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगता था।
एक दिन मेरे मन में एक ऐसा भोज आयोजित करने का विचार आया जिसमें मेहतरानियाँ भोजन पकाएँ, और ऊँची जातियों के लोग उनके साथ बैठकर खाएँ। मैंने…